Friday 5 April 2013

कहानी मुर्ग़े की

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एक दिन बाज ने कहा ‘मियां मुर्ग़े, तुम बड़े ही बेवफ़ा,बेमुरव्वत और नाशुक्रे हो। देखो आदमी किस मुहब्बत से तुम्हें पालते और दाने-पानी की ख़बर लेते हैं, फिर भी तुम्हारा हाल यह है कि मालिक पकड़ना चाहता है, तो भागे-भागे फिरते हो। ख़ुद भी थकते हो और मालिक को भी थकाते हो।’‘मुझको देखो, जंगल का पखेरू, पहाड़ का परिन्दा, हवा पर उड़ने वाला, मगर जहां दो-चार दिन रहा आदमियों में, बस उनकी ख़ौफ से वाक़िफ़ हुआ और उनका नमक खाया, फिर तो ऐसा मुतीय और फ़रमाबरदार होता हूं कि इशारों पर काम करता हूं। जब शिकार पर छोड़ते हैं, तो पंजे झाड़कर उसके पीछे पड़ता हूं। कोसों दूर निकल जाता हूं, मगर अपने आक़ा को नहीं भूलता। जरा वापसी का इशारा पाया, ख़ुशी-ख़ुशी उड़ता चला आया।
 
मुर्ग़ ने जवाब दिया, ‘मियां बाज, इसमें शक नहीं कि तुम बड़े शिकारी हो, बुलंद हिम्मत हो, चुस्तो-चालाक हो, लेकिन भाई, कुसूर माफ़, तुममें बात समझने की लियाक़त है नहीं। अगर तुम थोड़ा ग़ौर करते और मेरी और अपनी हालत का फ़र्क़ पहचानते, तो हरगिज़ बेवफ़ाई और कजअदाई का ताना मुझको न देते। मैंने सैकड़ों मुर्ग़ हलाल होते और सींक पर भुनते अपनी आंखों से देखे हैं, मगर तुमने किसी बाज को जिबाह होते या कबाब किए जाते देखा तो क्या, कभी सुना भी न होगा। इस सूरत में अगर मैं चौकन्ना रहूं और मालिक की तरफ़ से मेरे दिल में दुकुड़-पुकुड़ हो, तो मैं अक्लमंदों के नजदीक माना जाऊंगा, मलामत के क़ाबिल नहीं। और तुम अपने आक़ा पर इत्मीनान रखो, तो कुछ तारीफ़ के मुस्तहि़क नहीं हो।’

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